चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक
भंडारा-गोंदिया सीट से बीजेपी और एनसीपी ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा
आख़िरी वक्त में की है. बीजेपी ने यहां से सुनील मेंदे को उम्मीदवार बनाया
है, जो भंडारा नगर निगम परिषद के चेयरमैन भी हैं. वहीं एनसीपी ने नाना
पंचबुद्धे को अपना उम्मीदवार बनाया है.
पहले कयास लगाए जा रहे थे कि प्रफुल्ल पटेल अपने गृह क्षेत्र से चुनाव में मैदान में उतरेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, उन्होंने आख़िरी समय में यहां से चुनाव लड़ने का मन नहीं बनाया. राज्यसभा सांसद के तौर पर अभी पटेल के तीन ही साल हुए हैं यानी अगले तीन साल वे राज्यसभा में रहेंगे.
2014 में यहां से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर नाना पटोले ने चुनाव जीता था, लेकिन इस बार वे नागपुर के अपने चुनाव में व्यस्त हैं. इसके बाद 2018 में हुए उपचुनाव में एनसीपी के मधुकर कुकड़े ने बीजेपी के उम्मीदवार हेमंत पटेल को 48 हज़ार से ज़्यादा मतों से हराया लेकिन वे अपनी सीट बरकरार नहीं रख पाए हैं.
दरअसल ये उपचुनाव का नतीजा ही था जिसने पहली बार संकेत दिए थे कि इलाके के लोगों में मौजूदा सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ी है. कांग्रेस के राज्य महासचिव और भंडारा के प्रभारी प्रफुल्ल गोदाधे कहते हैं, "कुकड़े के लिए चुनाव के लिए हमलोगों ने कुछ नहीं किया था, लोगों ने हमें चुनाव जिता दिया."
भंडारा-गोंदिया उपचुनाव का नतीजा कुछ मायने में बेहद दिलचस्प रहा. इस चुनाव ने दिखाया कि आम जनता मिलकर किसी बड़े नेता को हरा सकती है. एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल भी कुकड़े की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी उम्मीदवार के प्रचार के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे नेता मौजूद थे.
लेकिन क्षेत्र के लोगों का कहना था कि ये गडकरी और फड़णवीस जैसे बड़े नेता थे जिन्होंने कुकड़े को 2014 में बीजेपी की ओर से विधानसभा का टिकट नहीं दिया था. वह एक स्थानीय चुनाव बन गया था और स्थानीय जातिगत समीकरणों पर लड़ा गया था.
अगर 2019 का चुनाव भी विदर्भ में स्थानीय मुद्दों पर लड़ा गया, जिसकी उम्मीद ज़्यादा है तो विपक्ष को फ़ायदा होगा. कुकड़े के मामले में ये जाहिर हुआ कि वित्तीय संसाधन और सत्ता की मशीनरी होने के बाद भी बीजेपी अपने उम्मीदवार को जीत नहीं दिला पाई थी.
बहरहाल, विदर्भ में दलितों, जनजातीय समुदाय के लोगों और मुस्लिमों की काफ़ी आबादी है. 2014 में इन लोगों ने बड़े पैमाने पर बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोट दिया था. लेकिन इस बार ऐसा ही होगा कहना मुश्किल है.
दलित विद्धान एवं लेखक यशवंत मनोहर कहते हैं कि ये चुनाव भारत के आइडिया और आत्मा का चुनाव है. यशवंत जैसे लोग दलित मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि वे रणनीति के तहत केवल उन उम्मीदवारों को वोट दें, जो बीजेपी के उम्मीदवार को हरा रहा है. ऐसे लोग दलितों को प्रकाश आंबेडकर की बहुजन वंचित आघाड़ी से भी सचेत रहने को कह रहे हैं, क्योंकि आंबेडकर की पार्टी से कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का वोट ही कटेगा और यह अप्रत्यक्ष रूप में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की मदद करेगा.
चंद्रपुर लोकसभा सीट पर तो कांग्रेस को और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. पहले पार्टी की ओर इस सीट से विनायक भांगडे को उम्मीदवार बनाया गया तो जो केंद्रीय राज्य मंत्री और चार बार के बीजेपी सांसद हंसराज अहीर के सामने कमजोर उम्मीदवार माने गए थे.
उनकी उम्मीदवारी पर कथित तौर पर महाराष्ट्र के कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चाव्हाण का एक आडियो टेप भी आया जो भांगड़े की उम्मीदवारी पर खुद को असहाय बता रहे थे और अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने की बात कह रहे थे .
लेकिन अब पार्टी ने विनायक भांगड़े की जगह सुरेश उर्फ़ बालू धानोरकर को टिकट दिया है. सुरेश धानोरकर, चंद्रपुर के वारोड़ा से शिवसेना के विधायक थे. लेकिन उन्होंने सप्ताह भर पहले ही शिवसेना से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस का हाथ थामा है. माना जा रहा है कि वे हंसराज अहीर को कड़ी टक्कर दे सकते हैं.
नागपुर में बीजेपी के एक नेता बताते हैं, "जगहों पर मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ एंटी इनकंबैंसी ज़रूर है, लेकिन हमारे विकास के काम और कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की कमजोर स्थिति के चलते हम आसानी से जीतेंगे."
यवतमाल ज़िले तो दिलचस्प तस्वीर पेश करता है, क्योंकि यह जिला तीन लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करता है. चार विधानसभा सीटें यावतमान वाशिम के अधीन आती हैं. इस लोकसभा सीट से शिवसेना की भावना गवली की पांचवीं बार संसद पहुंचने के इरादे से मैदान में हैं.
इस ज़िले की एक विधानसभा सीटा हिंगोली के अधीन आती है, जहां से कांग्रेस के मौजूदा सांसद राजीव साटव पार्टी के संगठनात्मक काम के चलते यहां चुनाव मैदान में नहीं उतर रहे हैं. वहीं यवतमाल की दो विधानसभा सीटें चंद्रपुर लोकसभा सीट के अधीन आती हैं.
इस पूरे ज़िले में कांग्रेस की हालत पर एक कांग्रेसी नेता ने बीबीसी को बताया, "गवली को माणिकराव ठाकरे चुनौती दे रहे हैं, लेकिन ये चुनौती उनकी नहीं हैं. दरअसल वहां की जनता ही गवली को चुनौती दे रही हैं. साटव ने तो मैदान ही छोड़ दिया है और चंद्रपुर में हमारी पार्टी ने उम्मीदवार बदल-बदलकर स्थिति खराब कर ली है."
कांग्रेस-एनसीपी की सबसे अच्छी स्थिति गढ़चिरौली में हैं, यह एक सुरक्षित सीट है. इलाके का जनजातीय समुदाय वन अधिकार कानून को लागू करने में देरी के चलते बीजेपी से नाराज है. लेकिन रामटेक, अमरावती, यवमाल-वाशिम और बुलडाना में शिवसेना की स्थिति मज़बूत है.
इस बार के चुनाव में एक फैक्टर और काम करेगा- आम आदमी पार्टी कहीं भी अपने उम्मीदवार खड़ा नहीं करेगी. 2014 में आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों ने एक लाख से लेकर तीन लाख वोट बटोरे थे.
अगर इस बार बीएसपी अपने उम्मीदवार भी खड़े करती है, तो भी आम आदमी पार्टी के पूर्व कार्यकर्ता गिरीश नांदगांवकर के मुताबिक आप की गैरमौजूदगी का फायदा कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष को होगा. उन्होंने बताया कि इससे बीजेपी विरोधी मतों का बिखराव रुकेगा.
पहले कयास लगाए जा रहे थे कि प्रफुल्ल पटेल अपने गृह क्षेत्र से चुनाव में मैदान में उतरेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है, उन्होंने आख़िरी समय में यहां से चुनाव लड़ने का मन नहीं बनाया. राज्यसभा सांसद के तौर पर अभी पटेल के तीन ही साल हुए हैं यानी अगले तीन साल वे राज्यसभा में रहेंगे.
2014 में यहां से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर नाना पटोले ने चुनाव जीता था, लेकिन इस बार वे नागपुर के अपने चुनाव में व्यस्त हैं. इसके बाद 2018 में हुए उपचुनाव में एनसीपी के मधुकर कुकड़े ने बीजेपी के उम्मीदवार हेमंत पटेल को 48 हज़ार से ज़्यादा मतों से हराया लेकिन वे अपनी सीट बरकरार नहीं रख पाए हैं.
दरअसल ये उपचुनाव का नतीजा ही था जिसने पहली बार संकेत दिए थे कि इलाके के लोगों में मौजूदा सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ी है. कांग्रेस के राज्य महासचिव और भंडारा के प्रभारी प्रफुल्ल गोदाधे कहते हैं, "कुकड़े के लिए चुनाव के लिए हमलोगों ने कुछ नहीं किया था, लोगों ने हमें चुनाव जिता दिया."
भंडारा-गोंदिया उपचुनाव का नतीजा कुछ मायने में बेहद दिलचस्प रहा. इस चुनाव ने दिखाया कि आम जनता मिलकर किसी बड़े नेता को हरा सकती है. एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल भी कुकड़े की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी उम्मीदवार के प्रचार के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसे नेता मौजूद थे.
लेकिन क्षेत्र के लोगों का कहना था कि ये गडकरी और फड़णवीस जैसे बड़े नेता थे जिन्होंने कुकड़े को 2014 में बीजेपी की ओर से विधानसभा का टिकट नहीं दिया था. वह एक स्थानीय चुनाव बन गया था और स्थानीय जातिगत समीकरणों पर लड़ा गया था.
अगर 2019 का चुनाव भी विदर्भ में स्थानीय मुद्दों पर लड़ा गया, जिसकी उम्मीद ज़्यादा है तो विपक्ष को फ़ायदा होगा. कुकड़े के मामले में ये जाहिर हुआ कि वित्तीय संसाधन और सत्ता की मशीनरी होने के बाद भी बीजेपी अपने उम्मीदवार को जीत नहीं दिला पाई थी.
बहरहाल, विदर्भ में दलितों, जनजातीय समुदाय के लोगों और मुस्लिमों की काफ़ी आबादी है. 2014 में इन लोगों ने बड़े पैमाने पर बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वोट दिया था. लेकिन इस बार ऐसा ही होगा कहना मुश्किल है.
दलित विद्धान एवं लेखक यशवंत मनोहर कहते हैं कि ये चुनाव भारत के आइडिया और आत्मा का चुनाव है. यशवंत जैसे लोग दलित मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि वे रणनीति के तहत केवल उन उम्मीदवारों को वोट दें, जो बीजेपी के उम्मीदवार को हरा रहा है. ऐसे लोग दलितों को प्रकाश आंबेडकर की बहुजन वंचित आघाड़ी से भी सचेत रहने को कह रहे हैं, क्योंकि आंबेडकर की पार्टी से कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का वोट ही कटेगा और यह अप्रत्यक्ष रूप में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की मदद करेगा.
चंद्रपुर लोकसभा सीट पर तो कांग्रेस को और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. पहले पार्टी की ओर इस सीट से विनायक भांगडे को उम्मीदवार बनाया गया तो जो केंद्रीय राज्य मंत्री और चार बार के बीजेपी सांसद हंसराज अहीर के सामने कमजोर उम्मीदवार माने गए थे.
उनकी उम्मीदवारी पर कथित तौर पर महाराष्ट्र के कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चाव्हाण का एक आडियो टेप भी आया जो भांगड़े की उम्मीदवारी पर खुद को असहाय बता रहे थे और अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने की बात कह रहे थे .
लेकिन अब पार्टी ने विनायक भांगड़े की जगह सुरेश उर्फ़ बालू धानोरकर को टिकट दिया है. सुरेश धानोरकर, चंद्रपुर के वारोड़ा से शिवसेना के विधायक थे. लेकिन उन्होंने सप्ताह भर पहले ही शिवसेना से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस का हाथ थामा है. माना जा रहा है कि वे हंसराज अहीर को कड़ी टक्कर दे सकते हैं.
नागपुर में बीजेपी के एक नेता बताते हैं, "जगहों पर मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ एंटी इनकंबैंसी ज़रूर है, लेकिन हमारे विकास के काम और कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की कमजोर स्थिति के चलते हम आसानी से जीतेंगे."
यवतमाल ज़िले तो दिलचस्प तस्वीर पेश करता है, क्योंकि यह जिला तीन लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करता है. चार विधानसभा सीटें यावतमान वाशिम के अधीन आती हैं. इस लोकसभा सीट से शिवसेना की भावना गवली की पांचवीं बार संसद पहुंचने के इरादे से मैदान में हैं.
इस ज़िले की एक विधानसभा सीटा हिंगोली के अधीन आती है, जहां से कांग्रेस के मौजूदा सांसद राजीव साटव पार्टी के संगठनात्मक काम के चलते यहां चुनाव मैदान में नहीं उतर रहे हैं. वहीं यवतमाल की दो विधानसभा सीटें चंद्रपुर लोकसभा सीट के अधीन आती हैं.
इस पूरे ज़िले में कांग्रेस की हालत पर एक कांग्रेसी नेता ने बीबीसी को बताया, "गवली को माणिकराव ठाकरे चुनौती दे रहे हैं, लेकिन ये चुनौती उनकी नहीं हैं. दरअसल वहां की जनता ही गवली को चुनौती दे रही हैं. साटव ने तो मैदान ही छोड़ दिया है और चंद्रपुर में हमारी पार्टी ने उम्मीदवार बदल-बदलकर स्थिति खराब कर ली है."
कांग्रेस-एनसीपी की सबसे अच्छी स्थिति गढ़चिरौली में हैं, यह एक सुरक्षित सीट है. इलाके का जनजातीय समुदाय वन अधिकार कानून को लागू करने में देरी के चलते बीजेपी से नाराज है. लेकिन रामटेक, अमरावती, यवमाल-वाशिम और बुलडाना में शिवसेना की स्थिति मज़बूत है.
इस बार के चुनाव में एक फैक्टर और काम करेगा- आम आदमी पार्टी कहीं भी अपने उम्मीदवार खड़ा नहीं करेगी. 2014 में आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों ने एक लाख से लेकर तीन लाख वोट बटोरे थे.
अगर इस बार बीएसपी अपने उम्मीदवार भी खड़े करती है, तो भी आम आदमी पार्टी के पूर्व कार्यकर्ता गिरीश नांदगांवकर के मुताबिक आप की गैरमौजूदगी का फायदा कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष को होगा. उन्होंने बताया कि इससे बीजेपी विरोधी मतों का बिखराव रुकेगा.
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